सत्तारूढ़ राजनीति बहुत पौरुष-केन्द्रित हो चुकी है और उसके द्वारा हिन्दू धर्म के जिस अप्रामाणिक लेकिन कॉरपोरेट क़िस्म के संस्करण - हिन्दुत्व - को पाला-पोसा-बढ़ाया जा रहा है उसमें वे सभी तत्व हैं जो स्त्रियों को समाज में समान अधिकार देने के विरुद्ध और पितृसत्ता क़ायम रखने के पक्ष में सक्रिय होंगे. इसका आशय यह है कि स्त्री-विमर्श को हिन्दुत्व का सामना भी करना पड़ेगा. और तो और वे भूल रहें है कि अहिंसा में पूरा भरोसा करनेवाले गांधीजी भी इसी देश के थे। जिनके साथ यहाँ की औरते चल रही है। रास्ता कठिण है पर नामुम्किन कुछ भी नहीं।
हमारी हालत यह है कि हमें कोरोना महामारी से लेकर अन्य अनेक प्रकार के भय घेरते जा रहे हैं और राज्य जिन्हें कर सकता है उन्हें दूर करने के बजाय स्वयं भय की वजह बन रहा है. हम लोकतंत्र से भय खाने लगे हैं क्योंकि वह बहुसंख्यकतावादी बनता जा रहा है. हम अदालतों से भय खा रहे हैं कि वे राजनीति से इस क़दर प्रभावित हो रही हैं कि उन पर अपने बुनियादी अधिकारों की रक्षा करने के लिए भरोसा नहीं कर सकते. हम धर्मों से भय खा रहे हैं कि वे हमें शांति और समाधान देने के बजाय इन दिनों लगातार हिंसक हो रहे हैं. वे आपसदारी को ज़्यादा और भेदभाव को कम करने के बजाय पहले को कम और दूसरे को ज्यादा कर रहे हैं. हम संवैधानिक संस्थाओं से भय खा रहे हैं क्योंकि वे संविधान के प्रति नहीं, सत्ता के प्रति वफादार होती जा रही है. हम मीडिया से, उसके बड़े भाग से भय खा रहे हैं क्योंकि वह चौबीसों घण्टे घृणा, भेदभाव फैला रहा है. हम अपने मध्य वर्ग से भयातुर हैं कि वह सचाई के बजाय तरह-तरह के झूठों को सच मानकर भक्ति और अन्धानुकरण में रत हैं. कुल मिलाकर, हर दिशा से डरावने विद्रूप हमें घेरे हुए हैं.
इस समय न डरना कठिन ज़रूर है पर असम्भव नहीं है. गांधी और अन्य स्वतंत्रता सेनानियों को जेल में बरसों-महीनों क़ैद कर एक आतयायी औपनिवेशिक सत्ता ने डराने की कोशिश की. पर हजार तकलीफे उठाकर - कस्तूरबा और उनके प्रिय सचिव दोनों का देहावसान उन सभी के जेल में रहते हुए हुआ था - वे डरे नहीं.
हम आज ऐसी भयावह स्थिति में हैं जहां हत्यारे-हिंसक-बलात्कारी राजनीति और सत्ता दोनों से प्रश्रय पा रहे हैं. समय की गति तेज़ है और परिवर्तन भी दूर नहीं हो सकता. डरे हुए लोग, खौफ़ के मारे समूह, परिवर्तन नहीं ला सकते. हमें किसी नायक की प्रतीक्षा नहीं करना चाहिये. अपने डर को दूरकर सर्जनात्मक और अहिंसक ढंग से निर्भय होकर हम जहां भी हैं इस अंधेरे के विरुद्ध एक-एक दीपशिखा जलाना चाहिये. जो इतने भयावह समय में निर्भय है वह, कहीं न कहीं, अपराजेय भी है. हमारी परम्परा यही कहती है. निराशा का एक कर्तव्य निर्भय बनाना भी है. हो सकना चाहिये.
यह अनदेखा नहीं जाना चाहिये कि इस समय राजनीति, विशेषतः सत्तारूढ़ राजनीति बहुत पौरुष-केन्द्रित हो चुकी है और उसके द्वारा हिन्दू धर्म के जिस अप्रामाणिक लेकिन कॉरपोरेट क़िस्म के संस्करण - हिन्दुत्व - को पाला-पोसा-बढ़ाया जा रहा है उसमें वे सभी तत्व हैं जो स्त्रियों को समाज में समान अधिकार देने के विरुद्ध और पितृसत्ता क़ायम रखने के पक्ष में सक्रिय होंगे. इसका आशय यह है कि स्त्री-विमर्श को हिन्दुत्व का सामना भी करना पड़ेगा. चूंकि यह हिन्दुत्व धर्म कम, राजनीति अधिक है इसलिए यह विमर्श बिना गहरे राजनैतिक बोध के प्रामाणिक और सार्थक नहीं हो पायेगा. इसे भी नज़रन्दाज़ नहीं किया जा सकता कि गोदी मीडिया भी कुल मिलाकर क़िस्म-क़िस्म की रूढ़िवादिता को ही पोस और प्रसारित कर रहा है. इसलिए संघर्ष कई स्तरों पर एक साथ होगा. और हम औरतें ना उनसे डरेंगी, हमेशा अपना हौसला कायम रखते हुये हम मिलजुलकर हिंदुत्व का विरोध करती रहेंगी.
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डॉ. घपेश पुंडलिकराव ढवळे
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