Thursday, June 18, 2020

क्या चीनी सामान का बॉयकॉट किया जा सकता है?


आज भारत-चीन सीमा पर तनाव के समय कुछ लोग अपना पुराना टीवी सड़कों पर पटक विरोध जता रहे हैं। चीनी सामान का बॉयकॉट करने के लिए जो पहली शर्त है, वह यह है कि हमें पता होना चाहिए कि कौन-कौन से सामान में चीन के पैसे लगे हैं। तो इसे जानने के लिए आपको अच्छा-खासा इकोनोमिक एक्सपर्ट बनने की ज़रूरत पड़ेगी। किस भारतीय प्रॉडक्ट में चीन की एसेसरीज लगी है और किस चीनी प्रॉडक्ट की फैक्ट्री भारत में लगी है, जहां भारतीयों का पैसा लगा है और उन्हें काम मिल रहा है, यह पूरी तरह से पता लगाना एक  जटिल काम है। आम आदमी के लिए ये बेहद मुश्किल है। 

- पेटीएम, पेटीएम मॉल, बिग बास्केट, ड्रीम 11, स्नैपडील,फ्लिपकार्ट, ओला, मेक माई ट्रिप, स्विगी, 
जोमेटो जैसी स्टार्टअप कंपनियों  में चीन की अलीबाबा और टेंसट होल्डिंग कंपनी की बड़ी हिस्सेदारी है। 

- भारत में  पिछले पांच साल में स्टार्टअप कंपनियों में चीन ने 4 बिलियन डॉलर यानी 30,000 करोड़ से ज्यादा का इन्वेस्टमेंट किया है, जो कुल इन्वेस्टमेंट का 2/3 भाग है।

- ओप्पो, वीवो, शाओमी जैसे मोबाइल, जिनका भारत के 66% स्मार्टफोन बाजार पर कब्ज़ा है, वे चीनी कंपनियां हैं।

- देश भर की सभी पॉवर कंपनियां अपने ज्यादातर इक्विपमेंट चीन के बनाए खरीदती हैं। TBEA जो भारत की सबसे बड़ी इलेक्ट्रिक इक्विपमेंट एक्सपोर्टर कंपनी है, वह एक चीन समर्थित कंपनी है, जिसकी फैक्टरी गुजरात में लगी है।
 
- देश में बनने वाली दवा के 66% इनग्रेडिएंट्स चीन से आते हैं।

- भारत में उत्पादित समान का चीन तीसरा सबसे बड़ा इम्पोर्टर देश है। 2014 के बाद भारत का चीन से इम्पोर्ट 55% और एक्सपोर्ट 22% बढ़ा है। भारत चीन के बीच लगभग 7.2 लाख करोड़ का व्यापार होता है, जिसमें 1.5 लाख करोड़ भारत एक्सपोर्ट और 5.8 लाख करोड़ का इम्पोर्ट करता है।

- इंडियन इलेक्ट्रिक ऑटो सेक्टर तो पूरी तौर पर चाइनीज कंपनी के चंगुल में आता जा रहा है। गिले, चेरि, ग्रेट वॉल मोटर्स, चंगान और बीकी फोटॉन जैसी चीनी कंपनियां अगले 3 साल में 5 बिलियन डॉलर यानी 35 हजार करोड़ से अधिक इन्वेस्टमेंट करने जा रहीं। इनमें कई की फैक्ट्रियां मुंबई और गुजरात में लग रही हैं।

- अडानी समूह ने 2017 में चीन की सबसे बड़ी कंपनियों में से एक ईस्ट होप ग्रुप के साथ गुजरात में सौर ऊर्जा उपकरण के उत्पादन के लिए $ 300 मिलियन से अधिक का निवेश करने का समझौता किया था। रेन्युवेबल एनर्जी में चीन की लेनी, लोंगी, सीईटीसी जैसी कंपनियां भारत में 3.2 बिलियन डॉलर यानी 25 हजार करोड़ से अधिक इन्वेस्ट करने वाली हैं।

- आनंद कृष्णन के एक लेख के अनुसार 2014 में भारत चीन का इन्वेस्टमेंट 1.6 बिलियन था, जो मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद केवल 3 वर्ष यानी 2018 में पांच गुना बढ़कर करीब 8 बिलियन डॉलर हो गया।


- 2019 अक्टूबर में गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रूपानी ने धोलेरा विशेष निवेश क्षेत्र (SIR) में चीनी औद्योगिक पार्क स्थापित करने के लिए चाइना एसोसिएशन ऑफ स्मॉल एंड मीडियम एंटरप्राइजेज (CASME) के साथ एक समझौता ज्ञापन पर हस्ताक्षर किया, जिसमें उच्च तकनीक क्षेत्रों में चीन 10,500 करोड़ रुपये का निवेश  करेगा। यह प्रक्रिया उस वक़्त शुरू हुई जब प्रधानमंत्री गुजरात में शी जिनपिंग को झूला झूलाने के लिए लाए थे।

- हाल ही में दिल्ली-मेरठ ​रीजनल रैपिड ट्रांजिट सिस्टम (RRTS) प्रोजेक्ट के अंडरग्राउंड स्ट्रेच बनाने के लिए 1100 करोड़ का ठेका चीनी कम्पनी SETC को मिला है। वहीं महाराष्ट्र सरकार के साथ चीनी वाहन निर्माता कंपनी ग्रेट वॉल मोटर्स (जीडब्ल्यूएम)  का 7600 करोड़ रुपये के निवेश का समझौता हुआ है।

तो ये बीएसएनएल और एमटीएनएल जैसी सरकारी कंपनियां, जो पहले से ही खस्ता हालात में हैं, वहां चीनी समान के उपयोग पर प्रतिबंध केवल फैंटा मंडली और चाटुकार मीडिया को चटखारे लगाने के लिए लगाया गया है। यदि सरकार सच में चीनी उत्पाद का बॉयकॉट करने लगे तो सबसे ज्यादा नुकसान उसके गुजराती परम मित्रों को ही होने वाला है, जो उसके चुनाव खर्चे उठाते हैं।

 यदि सच में भारत बॉयकॉट चीन चाहता है तो उसके लिए लंबी, कुशल और दूरदृष्टिसम्पन्न रणनीति की ज़रूरत पड़ेगी। लेकिन जो सरकार चीनी कंपनियों के लगातार बेताहाशा इन्वेस्टमेंट के बाद भी देश की चलती फिरती अर्थव्यवस्था को 8 से 3.5% जीडीपी पर ले आए, उससे आप बॉयकॉट चीन के मसले पर कितनी आशा रख सकते हैं?

By 
डॉ घपेश पुंडलिक राव ढवळे नागपुर
    ghapesh84@gmail.com
    M. 8600044560


Monday, June 15, 2020

रोहित वेमुला आत्महत्या "कायरता" और सुशांत आत्महत्या "दुःखद घटना" हो गयी.


सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या के कुछ घंटे बाद ही प्रधानमन्त्री "मोदी जी" का दुःख भरा ट्विट आ गया, इसके अलावा तमाम उन व्यक्तिओ का दुःख भरा संदेश आ गया जो की;

"रोहित वेमुला की आत्महत्या पर इसे कायरता, मुर्खता, कह रहे थे, वेमुला को कायर कह रहे थे"

जबकि दोनों ही स्तिथि में सबसे कॉमन बात यह है की दोनों ही व्यक्ति;

"डिप्रेशन से ग्रस्त हो गये थे"

डिप्रेशन भी अलग अलग स्तिथि में अपना प्रभाव दिखाता है.

1.सुशांत सिंह का डिप्रेशन एकाएक मिली सफलता के बाद असफलताओ का सामना भी हो सकता है. जांच के बाद पता लगेगा की किस प्रकार का डिप्रेशन था. ऐसा डिप्रेशन भारत की अमूमन 135 करोड़ जनसँख्या को है, किसी को कम है और किसी को ज्यादा हो सकता है क्योंकि सन्तुष्ट तो मुकेश अम्बानी भी नही है। अनिल अंबानी कभी 6ठे नम्बर का अमीर व्यक्ति था, अब अपनी कम्पनियों को दिवालिया घोषित करवाने के लिए आवेदन कर रखा है।

2.रोहित वेमुला को जो डिप्रेशन था, वो डिप्रेशन उसका 25% जनसंख्या वाला एससी/एसटी समाज सैकड़ो वर्षो से धर्म के आधार पर झेल रहा है. बस उसका समाज धर्म के आधार पर इसे अपनी नियति समझकर झेलता रहा, लेकिन वर्ण व्यवस्था, जातिवादी माहोल से लडकर आत्मसम्मान व मनोबल प्राप्त कर चूका रोहित वेमुला जातिवादी मानसिकता के लोगो के दमन को झेल नही पाया इसलिए आत्महत्या का कदम उठा लिया.

3.रोहित वेमुला की आत्महत्या में स्मृति इरानी के पत्र पर काफी हंगामा हुआ था, और आज देखिए;

"स्मृति इरानी ने सुशांत सिंह राजपुर की आत्महत्या पर बड़ा ही दुःख प्रकट किया है"

4.इन सभी बातो में इतना तय है की सुशांत सिंह को जिस स्तर का डिप्रेशन रहा होगा, वो उस स्तर का नही होगा जिस उच्च स्तर का रोहित वेमुला को रहा है क्युकी इस डिप्रेशन की जड में भारत की "जातिवादी व्यवस्था" विधमान है. बकायदा रोहित वेमुला का सुसाइड पत्र अगर एक बार पढ़ लिया जाए तो जो बायस सामाजिक व्यवहार नही रखता है वो जरुर कहेगा की कितना दर्द था, कितना तनाव था, इतने तनाव में एक समाज सैकड़ो वर्षो से जी रहा है, यह ही अपने आप में बड़ी बात है.

4.फिर भी आत्महत्या का समर्थन नही किया जा सकता है. बाबा साहब को जब पारसी गेस्ट हाउस से सामान यह जानकर फैंक दिया गया की यह अछूत है, और उसके बाद बाबा साहब पार्क में "डिप्रेशन" में ही बैठे थे, लेकिन उन्होंने डिप्रेशन में अपने को मजबूत किया और ऐसा इतिहास लिख दिया जो हमेशा याद रखा जायेगा. फिर भी शोषित समाज सहित मुझे एक बेहतरीन एक्टिंग कर रहे सुशांत सिंह राजपूत की आत्महत्या पर व्यक्तिगत तौर पर दुःख हुआ है. लेकिन क्या;

"रोहित वेमुला की डिप्रेशन में आत्महत्या पर भारतीय समाज को इतना ही दुःख हुआ?"

वास्तव में भारतीय जातिवादी समाज की सोच का यह ही बड़ा अंतर है, उन्हें अमरीका में जोर्ज फ्लाईड की हत्या पर दर्द होता है क्युकी अमरीका में वो स्वय ब्लैक की श्रेणी में आते है जबकि भारत में वो स्वय "श्वेत" अथार्त गोरे लोगो की मानसिकता रखकर एससी/एसटी पर जुल्म करते है, मजा लेते है, या फिर ऐसे जुल्म पर आँखे छुपा लेते है.

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डॉ. घपेश पुंडलिक राव ढवळे , नागपुर 
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      8600044560

Monday, June 8, 2020

बिरसा_मुंडा : जिनके उलगुलान और बलिदान ने लाई क्रांती.

हालात आज भी वैसे ही हैं जैसे बिरसा मुंडा के वक्त थे. आदिवासी खदेड़े जा रहे हैं, दिकू अब भी हैं. जंगलों के संसाधन तब भी असली दावेदारों के नहीं थे और न ही अब हैं

महान उपन्यासकार महाश्वेता देवी के उपन्यास ‘जंगल के दावेदार’ का एक अंश :

सवेरे आठ बजे बीरसा मुंडा खून की उलटी कर, अचेत हो गया. बीरसा मुंडा- सुगना मुंडा का बेटा; उम्र पच्चीस वर्ष-विचाराधीन बंदी. तीसरी फ़रवरी को बीरसा पकड़ा गया था, किन्तु उस मास के अंतिम सप्ताह तक बीरसा और अन्य मुंडाओं के विरुद्ध केस तैयार नहीं हुआ था....क्रिमिनल प्रोसीजर कोड की बहुत सी धाराओं में मुंडा पकड़ा गया था, लेकिन बीरसा जानता था उसे सज़ा नहीं होगी,’ डॉक्टर को बुलाया गया उसने मुंडा की नाड़ी देखी. वो बंद हो चुकी थी. बीरसा मुंडा नहीं मरा था, आदिवासी मुंडाओं का ‘भगवान’ मर चुका था.

आदिवासियों का संघर्ष अट्ठारहवीं शताब्दी से चला आ रहा है. 1766 के पहाड़िया-विद्रोह से लेकर 1857 के ग़दर के बाद भी आदिवासी संघर्षरत रहे. सन 1895 से 1900 तक बीरसा या बिरसा मुंडा का महाविद्रोह ‘ऊलगुलान’ चला. आदिवासियों को लगातार जल-जंगल-ज़मीन और उनके प्राकृतिक संसाधनों से बेदखल किया जाता रहा और वे इसके खिलाफ आवाज उठाते रहे.

1895 में बिरसा ने अंग्रेजों की लागू की गयी ज़मींदारी प्रथा और राजस्व-व्यवस्था के ख़िलाफ़ लड़ाई के साथ-साथ जंगल-ज़मीन की लड़ाई छेड़ी थी. बिरसा ने सूदखोर महाजनों के ख़िलाफ़ भी जंग का ऐलान किया. ये महाजन, जिन्हें वे दिकू कहते थे, क़र्ज़ के बदले उनकी ज़मीन पर कब्ज़ा कर लेते थे. यह मात्र विद्रोह नहीं था. यह आदिवासी अस्मिता, स्वायतत्ता और संस्कृति को बचाने के लिए संग्राम था.

आदिवासी और स्त्री मुद्दों पर अपने काम के लिए चर्चित साहित्यकार रमणिका गुप्ता अपनी किताब ‘आदिवासी अस्मिता का संकट’ में लिखती हैं, ‘आदिवासी इलाकों के जंगलों और ज़मीनों पर, राजा-नवाब या अंग्रेजों का नहीं जनता का कब्ज़ा था. राजा-नवाब थे तो ज़रूर, वे उन्हें लूटते भी थे, पर वे उनकी संस्कृति और व्यवस्था में दखल नहीं देते थे. अंग्रेज़ भी शुरू में वहां जा नहीं पाए थे. रेलों के विस्तार के लिए, जब उन्होंने पुराने मानभूम और दामिन-ई-कोह (वर्तमान में संथाल परगना) के इलाकों के जंगले काटने शुरू कर दिए और बड़े पैमाने पर आदिवासी विस्थापित होने लगे, आदिवासी चौंके और मंत्रणा शुरू हुई.’ वे आगे लिखती हैं, ‘अंग्रेजों ने ज़मींदारी व्यवस्था लागू कर आदिवासियों के वे गांव, जहां व सामूहिक खेती किया करते थे, ज़मींदारों, दलालों में बांटकर, राजस्व की नयी व्यवस्था लागू कर दी. इसके विरुद्ध बड़े पैमाने पर लोग आंदोलित हुए और उस व्यवस्था के ख़िलाफ़ विद्रोह शुरू कर दिए.’

बिरसा मुंडा को उनके पिता ने मिशनरी स्कूल में भर्ती किया था जहां उन्हें ईसाइयत का पाठ पढ़ाया गया. कहा जाता है कि बिरसा ने कुछ ही दिनों में यह कहकर कि ‘साहेब साहेब एक टोपी है’ स्कूल से नाता तोड़ लिया. 1890 के आसपास बिरसा वैष्णव धर्म की ओर मुड गए. जो आदिवासी किसी महामारी को दैवीय प्रकोप मानते थी उनको वे महामारी से बचने के उपाय समझाते. मुंडा आदिवासी हैजा, चेचक, सांप के काटने बाघ के खाए जाने को ईश्वर की मर्ज़ी मानते, बिरसा उन्हें सिखाते कि चेचक-हैजा से कैसे लड़ा जाता है. बिरसा अब धरती आबा यानी धरती पिता हो गए थे.

धीरे-धीरे बिरसा का ध्यान मुंडा समुदाय की ग़रीबी की ओर गया. आज की तरह ही आदिवासियों का जीवन तब भी अभावों से भरा हुआ था. न खाने को भात था न पहनने को कपड़े. एक तरफ ग़रीबी थी और दूसरी तरफ ‘इंडियन फारेस्ट एक्ट’ 1882 ने उनके जंगल छीन लिए थे. जो जंगल के दावेदार थे, वही जंगलों से बेदख़ल कर दिए गए. यह देख बिरसा ने हथियार उठा लिए. उलगुलान शुरू हो गया था.

अपनों का धोखा

संख्या और संसाधन कम होने की वजह से बिरसा ने छापामार लड़ाई का सहारा लिया. रांची और उसके आसपास के इलाकों में पुलिस उनसे आतंकित थी. अंग्रेजों ने उन्हें पकड़वाने के लिए पांच सौ रुपये का इनाम रखा था जो उस समय बहुत बड़ी रकम थी. बिरसा मुंडा और अंग्रेजों के बीच अंतिम और निर्णायक लड़ाई 1900 में रांची के पास दूम्बरी पहाड़ी पर हुई. हज़ारों की संख्या में मुंडा आदिवासी बिरसा के नेतृत्व में लड़े. पर तीर-कमान और भाले कब तक बंदूकों और तोपों का सामना करते? लोग बेरहमी से मार दिए गए. 25 जनवरी, 1900 में स्टेट्समैन अखबार के मुताबिक इस लड़ाई में 400 लोग मारे गए थे.

अंग्रेज़ जीते तो सही पर बिरसा मुंडा हाथ नहीं आए. लेकिन जहां बंदूकें और तोपें काम नहीं आईं वहां पांच सौ रुपये ने काम कर दिया. बिरसा की ही जाति के लोगों ने उन्हें पकड़वा दिया!

महाश्वेता देवी अपने महान कालजयी उपन्यास ‘जंगल के दावेदार’ में लिखती हैं, ‘अगर उसे उसकी धरती पर दो वक़्त दो थाली घाटो, बरस में चार मोटे कपड़े, जाड़े में पुआल-भरे थैले का आराम, महाजन के हाथों छुटकारा, रौशनी करने के लिए महुआ का तेल, घाटो खाने के लिए काला नमक, जंगल की जड़ें और शहद, जंगल के हिरन और खरगोश-चिड़ियों आदि का मांस-ये सब मिल जाते तो बीरसा मुंडा शायद भगवान न बनता.’

‘उलगुलान’ के रुमानीवाद को साहित्य और जंगल से निकलकर साम्यवाद के हाथों में लाने वाले थे चारू मजुमदार, कनु सान्याल और जगत संथाल. इन्होंने इसे नक्सलवाद का रंग दे दिया. ‘नक्सलवाद’ शब्द की उत्पत्ति पश्चिम बंगाल के नक्सलबाड़ी गांव से हुई है. साम्यवाद के सिद्धान्त से फ़ौरी तौर पर समानता रखने वाला आदिवासी आंदोलन कई मायनों में अलग भी था. बाद में इसे माओवाद से जोड़ दिया गया.

हालात तो आज भी नहीं बदले हैं. आदिवासी गांवों से खदेड़े जा रहे हैं, दिकू अब भी हैं. जंगलों के संसाधन तब भी असली दावेदारों के नहीं थे और न ही अब हैं. आदिवासियों की समस्याएं नहीं बल्कि वे ही खत्म होते जा रहे हैं. सब कुछ वही है. जो नहीं है तो आदिवासियों के ‘भगवान’ बिरसा मुंडा.

ऐसे में कवि भुजंग मेश्राम की पंक्तियां याद आती हैं :

‘बिरसा तुम्हें कहीं से भी आना होगा
घास काटती दराती हो या लकड़ी काटती कुल्हाड़ी
यहां-वहां से, पूरब-पश्चिम, उत्तर दक्षिण से
कहीं से भी आ मेरे बिरसा
खेतों की बयार बनकर
लोग तेरी बाट जोहते.’

By
Dr. Ghapesh pundalikrao Dhawal. Nagpur
      ghapesh84@gmail.com
       8600044560

Sunday, June 7, 2020

राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कानुन (मनरेगा)

 राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार कानून, 2005 (मनरेगा) एक 
क्रांतिकारी और तर्कसंगत परिवर्तन का जीता जागता उदाहरण है। यह क्रांतिकारी बदलाव का सूचक इसलिए है क्योंकि इस कानून ने गरीब से गरीब व्यक्ति के हाथों को काम व आर्थिक ताकत दे भूख व गरीबी पर प्रहार किया। यह तर्कसंगत है क्योंकि यह पैसा सीधे उन लोगों के हाथों में पहुंचाता है जिन्हें इसकी सबसे ज्यादा जरूरत है। विरोधी विचारधारा वाली केंद्र सरकार के छः साल में व उससे पहले भी, लगातार मनरेगा की उपयोगिता साबित हुई है। मोदी सरकार ने इसकी आलोचना की, इसे कमजोर करने की कोशिश की, लेकिन अंत में मनरेगा के लाभ व सार्थकता को स्वीकारना पड़ा। कांग्रेस सरकार द्वारा स्थापित की गई सार्वजनिक वितरण प्रणाली के साथ-साथ मनरेगा सबसे गरीब व कमजोर नागरिकों को भूख तथा गरीबी से बचाने के लिए अत्यंत कारगर है। खासतौर से कोरोना महामारी के संकट के दौर में यह और ज्यादा  है।


 हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि देश की संसद द्वारा सितंबर, 2005 में पारित मनरेगा कानून एक लंबे जन आंदोलन तथा सिविल सोसायटी द्वारा उठाई जा रही मांगों का परिणाम है। कांग्रेस पार्टी ने जनता की इस आवाज को सुना व अमली जामा पहनाया। यह हमारे 2004 के चुनावी घोषणापत्र का संकल्प बना और हममें से इस योजना के क्रियान्वयन के लिए अधिक से अधिक दबाव डालने वाले हर व्यक्ति को गर्व है कि यूपीए सरकार ने इसे लागू कर दिखाया।

 इसका एक सरल सिद्धांत है: भारत के गांवों में रहने वाले किसी भी नागरिक को अब काम मांगने का कानूनी अधिकार है और सरकार द्वारा उसे न्यूनतम मजदूरी के साथ कम से कम 100 दिनों तक काम दिए जाने की गारंटी होगी। इसकी उपयोगिता बहुत जल्द साबित भी हुई। यह जमीनी स्तर पर, मांग द्वारा संचालित, काम का अधिकार देने वाला कार्यक्रम है, जो अपने स्केल एवं आर्किटेक्चर में अभूतपूर्व है तथा इसका उद्देश्य गरीबी मिटाना है। मनरेगा की शुरुआत के बाद 15 सालों में इस योजना ने लाखों लोगों को भूख व गरीबी के कुचक्र से बाहर निकाला है।

महात्मा गांधी ने कहा था, ‘‘जब आलोचना किसी आंदोलन को दबाने में विफल हो जाती है, तो उस आंदोलन को स्वीकृति व सम्मान मिलना शुरू हो जाता है’’। स्वतंत्र भारत में महात्मा गांधी की इस बात को साबित करने का मनरेगा से ज्यादा अच्छा उदाहरण और कोई नहीं। पद संभालने के बाद, प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी को भी समझ आया कि मनरेगा को बंद किया जाना व्यवहारिक नहीं। इसीलिए उन्होंने आपत्तिजनक भाषा का प्रयोग कर कांग्रेस पार्टी पर हमला बोला और इस योजना को ‘कांग्रेस पार्टी की विफलता का एक जीवित स्मारक’ तक कह डाला। पिछले सालों में मोदी सरकार ने मनरेगा को खत्म करने, खोखला करने व कमजोर करने की पूरी कोशिश की। लेकिन मनरेगा के सजग प्रहरियों, अदालत एवं संसद में विपक्षी दलों के भारी दबाव के चलते सरकार को पीछे हटने को मजबूर होना पड़ा। इसके बाद केंद्र सरकार ने मनरेगा को स्वच्छ भारत तथा प्रधानमंत्री आवास योजना जैसे कार्यक्रमों से जोड़कर इसका स्वरूप बदलने की कोशिश की, जिसे उन्होंने सुधार कहा। लेकिन, वास्तव में यह कांग्रेस पार्टी की योजनाओं का नाम बदलने का एक प्रयास मात्र था। यह और बात है कि मनरेगा श्रमिकों को भुगतान किए जाने में अत्यंत देरी की गई तथा उन्हें काम तक दिए जाने से इंकार कर दिया गया।


कोविड-19 महामारी और इससे उत्पन्न आर्थिक संकट ने मोदी सरकार को वास्तविकता का अहसास करवाया है। पहले से ही चल रहे अभूतपूर्व आर्थिक संकट व मंदी की मार झेल रही अर्थव्यवस्था ने सरकार को आभास दिलाया कि पिछली यूपीए सरकार के फ्लैगशिप ग्रामीण राहत कार्यक्रमों को दोबारा शुरू करने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है। काम स्वयं बोलता है। चाहे देर से ही सही, वित्तमंत्री द्वारा हाल में ही मनरेगा का बजट बढ़ा एक लाख करोड़ रु. से ज्यादा का कुल आवंटन किए जाने की घोषणा ने इस बात को साबित कर दिया है। अकेले मई 2020 में ही 2.19 करोड़ परिवारों ने इस कानून के तहत काम की मांग की, जो आठ सालों में सबसे ज्यादा है।


 कांग्रेस पार्टी के कार्यक्रमों को यथावत स्वीकार करने के लिए मजबूर मोदी सरकार अभी भी कमियां खोजने के लिए कुतर्कों का जाल बुनने में लगी है। लेकिन पूरा देश जानता है कि दुनिया के इस सबसे बड़े जन आंदोलन ने किस प्रकार न केवल लाखों भारतीयों को गरीबी के कुचक्र से बाहर निकाला, अपितु पंचायती राज संस्थाओं का स्वरूप बदल दिया, जलवायु परिवर्तन का प्रभाव कम करने में मदद की तथा ग्रामीण अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित किया। इसने सभी के लिए समान वेतन सुनिश्चित कर, महिलाओं, दलितों, आदिवासियों तथा कमजोर वर्गों को सशक्त बनाकर एक नए सामाजिक परिवर्तन की शुरुआत की। इसने उन्हें संगठित होने की ताकत दी और उन्हें सम्मान व स्वाभिमानपूर्ण जीवन प्रदान किया। आज के संकट में भारत को सशक्त बनाने के लिए इन तथ्यों को जानना बहुत आवश्यक है।


 आज निराश मजदूर व कामगार विभिन्न शहरों से समूहों में अपने गाँवों की ओर लौट रहे हैं। उनके पास न तो रोजगार है और न ही एक सुरक्षित भविष्य। जब अभूतपूर्व संकट के बादल मंडरा रहे हैं, तो मनरेगा की जरूरत व महत्व पहले से कहीं और ज्यादा है। इन मेहनतकशों का विश्वास पुनः स्थापित करने के लिए राहत कार्य उन पर केंद्रित होने चाहिए। सबसे पहला काम उन्हें मनरेगा का जॉब कार्ड जारी किया जाना है। श्री राजीव गांधी ने अपने विशेष प्रयासों द्वारा जिस पंचायती राज तंत्र को सशक्त बनाने का संघर्ष किया, आज मनरेगा को लागू करने की मुख्य भूमिका उन्हीं पंचायतों को दी जानी चाहिए, क्योंकि यह कोई केंद्रीकृत कार्यक्रम नहीं है। जन कल्याण की योजनाएं चलाने के लिए पंचायतों को और मजबूत किया जाए तथा प्राथमिकता से पैसा पंचायतों को दिया जाए। ग्राम सभा यह निर्धारित करे कि किस प्रकार का काम किया जाए। क्योंकि स्थानीय निर्वाचित प्रतिनिधि ही जमीनी हकीकत, श्रमिकों की स्थिति व उनकी जरूरतों को समझते हैं। वो अच्छी तरह जानते हैं कि गाँव व स्थानीय अर्थव्यवस्था की जरूरतों के अनुरूप, अपने बजट को कहाँ खर्च करना है। श्रमिकों के कौशल का उपयोग ऐसी टिकाऊ संरचनाओं के निर्माण के लिए किया जाना चाहिए, जिनसे कृषि उत्पादकता में सुधार हो, ग्रामीण आय में वृद्धि हो तथा पर्यावरण की रक्षा हो।


संकट के इस वक्त केंद्र सरकार को पैसा सीधा लोगों के हाथों में पहुंचाना चाहिए तथा सब प्रकार की बकाया राशि, बेरोजगारी भत्ता व श्रमिकों का भुगतान लचीले तरीके से बगैर देरी के करना चाहिए। मोदी सरकार ने मनरेगा के तहत कार्यदिवसों की संख्या बढ़ाकर 200 करने तथा कार्यस्थल पर ही पंजीकरण कराने की अनुमति देने की मांगों को नजरंदाज कर दिया है। मनरेगा के तहत ओपन-एंडेड फंडिंग सुनिश्चित होनी चाहिए, जैसा पहले होता था।

 मनरेगा की उपयोगिता बार बार साबित हुई है क्योंकि यूपीए सरकार के दौरान इसमें निरंतर सुधार व बढ़ोत्तरी हुई। विस्तृत सोशल ऑडिट, पारदर्शिता, पत्रकारों व बुद्धिजीवियों द्वारा जाँच-परख व लोकपाल की नियुक्ति के माध्यम से सरकार व नागरिकों ने मिलकर इसे मौजूदा आकार दिया। राज्य सरकारों ने सर्वश्रेष्ठ विधियों को अपनाकर इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। यह पूरी दुनिया में गरीबी उन्मूलन के एक मॉडल के रूप में प्रसिद्ध हो गया।


अनिच्छा से ही सही, मोदी सरकार इस कार्यक्रम का महत्व समझ चुकी है। मेरा सरकार से निवेदन है कि यह वक्त देश पर छाए संकट का सामना करने का है, न कि राजनीति करने का। यह वक्त भाजपा बनाम कांग्रेस का नहीं। आपके पास एक शक्तिशाली तंत्र है, कृपया इसका उपयोग कर आपदा के इस वक्त भारत के नागरिकों की मदद कीजिए।

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अनुवाद
डॉ. घपेश पुंडलीकराव ढळळे
ghapesh84@gmail.com
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Saturday, June 6, 2020

सिर्फ़ उम्मीद से पत्रकारिता नहीं चलती है !!!


पत्रकारिता बिनाका गीतमाला नहीं है। फ़रमाइश की चिट्ठी लिख दी और गीत बज गया। गीतमाला चलाने के लिए भी पैसे और लोग की ज़रूरत तो होती होगी। मैं हर दिन ऐसे मैसेज देखता रहता हूँ। आपसे उम्मीद है। लेकिन पत्रकारिता का सिस्टम सिर्फ़ उम्मीद से नहीं चलता। उसका सिस्टम बनता है पैसे से और पत्रकारिता की प्राथमिकता से। कई बार जिन संस्थानों के पास पैसे होते हैं वहाँ प्राथमिकता नहीं होती, लेकिन जहां प्राथमिकता होती है वहाँ पैसे नहीं होते। कोरोना के संकट में यह स्थिति और भयावह हो गई है। 

न्यूज़ कवरेज का बजट कम हो गया है। इसमें ख़बर करने वाले पत्रकार भी शामिल हैं। पिछले दिनों अख़बार बंद हुए। ब्यूरो बंद हो गए। बीस बीस साल के अनुभव वाले पत्रकार झटके में निकाल दिए गए। ख़बर खोजने का संबंध भी बजट से होता है। गाड़ी घोड़ा कर जाना पड़ता है। खोजना पड़ता है।बेशक दो चार लोग कर रहे हैं लेकिन इसका इको सिस्टम ख़त्म हो गया। कौन ख़बर लाएगा ? ख़बर लाना भी एक कौशल है। जो कई साल में निखरता है। अनुभवी लोगों के निकाल देने से ख़बरें का प्रवाह बुरी तरह प्रभावित होता है। 

यही नहीं ज़िला में काम करने वाले अस्थायी संवाददाताओं का बजट भी समाप्त हो गया। स्ट्रिंगर भी एक सिस्टम के तहत काम करता है। वो सिस्टम ख़त्म हो गया। अब कोरोना काल में जब विज्ञापन हुए तो उसके कारण कई पत्रकार निकाल दिए गए। न्यूज रूम ख़ाली हो गए। ज़्यादातर पत्रकार बहुत कम पैसे में जीवन गुज़ार देते हैं। कोविड 19 में छँटनी से वे मानसिक रूप से तबाह हो गए होंगे। 

वैसे चैनलों में रिपोर्टर बनने की प्रथा कब की ख़त्म सी हो गई थी। ख़त्म सी इसलिए कहा कि अवशेष बचे हुए हैं। आपको कुछ रिपोर्टर दिखते हैं। लेकिन वही हर मसले की रिपोर्टिंग में दिखते हैं। नतीजा यह होता है कि वे जनरल बात करके निकल जाते हैं। उनका हर विभाग में सूत्र नहीं होता है न ही वे हर विभाग को ठीक से जानते हैं। जैसे कोरोना काल में ही देखिए। टीवी पर ही आपने कितने रिपोर्टर को देखा जिनकी पहचान या साख स्वास्थ्य संवाददाता की है ? तो काम चल रहा है। बस। 

आप किसी भी वेबसाइट को देखिए। वहाँ ख़बरें सिकुड़ गई हैं। दो चार ख़बरें ही हैं। उनमें से भी ज़्यादातर विश्लेषण वाली ख़बरें हैं। बयान और बयानों की प्रतिक्रिया वाली ख़बरें हैं। यह पहले से भी हो रहा था। लेकिन तब तक ख़बरें बंद नहीं हुईं थीं। अब ख़बरें बंद हो गईं और डिबेट बच गए हैं। डिबेट के थीम ग्राउंड रिपोर्टिंग पर आधारित नहीं होते हैं। जिस जगह पर रिपोर्टिंग होनी चाहिए थी उस जगह को तथाकथित और कई बार अच्छे विशेषज्ञों से भरा जाता है। आप जितना डिबेट देखते हैं उतना ही ख़बरों का स्पेस कम करते हैं। कई बार डिबेट ज़रूरी हो जाता है लेकिन हर बार और रोज़ रोज़ नहीं। इसके नाम पर चैनलों के भीतर रिपोर्टिंग का सिस्टम ख़त्म कर दिया गया। कोरोना के बहाने तो इसे मिटा ही दिया गया। सरकार के दबाव में और सरकार से दलाली खाने की लालच में और अर्थ के दबाव में भी। 

मीडिया में राजनीतिक पत्रकारिता पर सबसे अधिक निवेश किया गया। उसके लिए बाक़ी विषयों को ध्वस्त कर दिया गया। आज राजनीति पत्रकारिता भी ध्वस्त हो गई। बड़े बड़े राजनीतिक संपादक और पत्रकार ट्विटर से कापी कर चैनलों के न्यूज ग्रुप में पोस्ट करते हैं। या फिर ट्विटर पर कोई प्रतिक्रिया देकर डिबेट को आगे बढ़ाते रहते हैं। बीच बीच में चिढ़ाते भी रहते हैं ! प्रधानमंत्री कब बैठक करेंगे यह बताने के लिए चैनल अभी भी राजनीतिक पत्रकारों में निवेश कर रहे हैं । साल में दो बार मीठा मीठा इंटरव्यू करने के लिए। 

दूसरा रिपोर्टिंग की प्रथा को समाज ने भी ख़त्म किया। इस पर विस्तार से बोलता ही रहा हूँ। फिर भी अपनी राजनीतिक पसंद के कारण मीडिया और जोखिम में डाल कर ख़बरें करने वालों को दुश्मन की तरह गिनने लगा। कोई भी रिपोर्टर एक संवैधानिक माहौल में ही जोखिम उठाता है जब उसे भरोसा होता है कि सरकारें जनता के डर से उस पर हाथ नहीं डालेंगी। राजनीतिक कारणों से पत्रकार और एंकर निकाले गए लोग चुप रहे । यहाँ तक तो पत्रकार झेल ले गया। लेकिन अब मुक़दमे होने लगे हैं। हर पत्रकार केस मुक़दमा नहीं झेल सकता है। उसकी लागत होती है। कोर्ट से आने वाली ख़बरें आप नोट तो कर ही रहे होंगे।

इसलिए जब आप कहते हैं कि ये खबर कर दीजिए, वो दिखा दीजिए। अच्छी बात है। लेकिन तब आप नहीं चौकस होते जब पत्रकारिता के सिस्टम को राजनीतिक और आर्थिक कारणों से कुचल दिया गया। बेशक संस्थानों की भी इसमें भूमिका रही लेकिन आप खुद से पूछें दिन भर में छोटी मोटी साइट पर लिख कर गुज़ारा करने वाले कितने पत्रकारों की खबरों को साझा करते हैं ?

आपको यह समझना होगा कि क्यों दिल्ली की ही ख़बरें हैं क्योंकि गुजरात में ब्यूरो नहीं है। संवाददाता नहीं है। हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड छत्तीसगढ़ केरल या बंगाल और असम में नहीं है। जहां है वहाँ अकेला बंदा या बंदी है। ब्यूरो के पत्रकार बिना छुट्टी के साल भर काम करते हैं। उनका बजट बहुत कम है। दूसरा राज्य सरकारें केस मुक़दमा करने लगी हैं। तीसरा लोग आई टी सेल बन कर साहसिक पत्रकारों को गाली देने लगे हैं। और अब संपादक या संस्थान दोनों ऐसी खबरों की तह में जाना ही नहीं चाहते। बीच बीच में एकाध ऐसी खबरें आ जाती हैं और चैनल या अख़बार पत्रकारिता का ढिंढोरा पीट कर सो जाते हैं। फिर सब ढर्रे पर चलता रहता है। 

इस प्रक्रिया को समझिए। पाँच साल से तो मैं ही अपने शो में कहता रहा हूँ, लिखता रहा हूँ , बोलता रहा हूँ कि मैं अकेला सारी ख़बरें नहीं कर सकता और न ही संसाधन है। आप दिल्ली के ही चैनलों में पता कर लें, दंगों की एफ आई आर पढ़ने वाले कितने रिपोर्टर हैं, जिन्हें चैनल ने कहा हो कि चार दिन लगा कर पढ़ें और पेश करें। मैं देख रहा था कि यह हो रहा है। इसलिए बोल रहा था। लोगों को लगा कि मैं हताश हो रहा हूँ । उम्मीद छोड़ रहा हूँ। जबकि ऐसा नहीं था। अब आप किसी पर उम्मीद का मनोवैज्ञानिक दबाव डाल कर फ़ारिग नहीं हो सकते। 

पत्रकारिता सिर्फ़ एक व्यक्ति से की गई उम्मीद से नहीं चलती है। सिस्टम और संसाधन से चलता है। दोनों ख़त्म हो चुका है। सरकारी विज्ञापनों पर निर्भर मीडिया से अगर आप उम्मीद करते हैं तो आप बेहद चालाक हैं। आलसी हैं। मुश्किल प्रश्न को छोड़ कर पहले आसान प्रश्न ढूँढने वाले छात्रों को पता है कि यही करते करते घंटी बज जाती है। परीक्षा ख़त्म हो जाती है। इसलिए इनबॉक्स में अपनी तकलीफ़ ज़रूर ठेलिए, मगर हर बार उम्मीद मत कीजिए। 
By 
FB  वाल वरुन 
https://www.bbc.com/hindi

आदिवासी स्टोरीटेलर्स टेटसिओ (Tetseo)सिस्टर्स---

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नागालैंड के 'Chakhesang' आदिवासी समुदाय से संबंध रखने वाली 4 बहनें पूर्वोत्तर की शान बनी हुई हैं। जानते हैं क्यों?? 
क्योंकि ये चारो बहनें अपनी भाषा 'chokri' में पुरखा(लोक) गीत गाने वाली अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा प्राप्त सिंगर हैं।

आदिवासी समाज में कहन की जिस परंपरा को आज की पीढ़ी भुला दे रही है उसी से ये चारो बहनें (मर्सी, अज़ी, कुकु और लुलु) दुनिया को रूबरू करवा रही हैं।

पुरखा गीतों को इन बहनों ने फ्यूज़न में ढाला है ताकि नई पीढ़ी अपनी परंपरा से आसानी से जुड़ सकें। इनके बैंड की एक और खास बात यह है कि इनके कंपोज़िशन में ये लोग आधुनिक से लेकर अपने समुदाय के पारंपरिक वाद्ययंत्रों का भी प्रयोग करते हैं। 

खुद को चारों बहनें अपने समुदाय की स्टोरीटेलर कहती हैं। इनके गीत धरती, पहाड़, नदी, जंगल, प्रकृति और मनुष्य की सहजीविता पर आधारित हैं।

मर्सी, अज़ी, कुकु और लुलु बैंककोक, मंयमार, साउथ कोरिया, एडिनबर्ग, शिकागो आदि जगहों पर अपने कई परफॉर्मेंस दे चुकी हैं। इसके अतिरिक्त बहुत से अवार्ड्स से भी ये नवाज़ी जा चुकी हैं। नागालैंड सरकार की कई योजनाओं की ब्रैंड अम्बेसडर भी बन चुकी हैं।

लेकिन इनके लिए यह राह इतनी भी आसान नहीं थी। क्योंकि इन्होंने अपनी आदिवासी परंपरा, संस्कृति और जीवन दर्शन को अपनी सामुदायिक भाषा मे जिस तरह से प्रस्तुत किया उसमें यह संभावना अधिक थी कि अपने खुद के समुदाय के बाहर इनको पहचान शायद न मिले। लेकिन इनके गीतों के बोल को न समझते हुए भी अन्य भाषा-भाषी इनके गीतों की सुंदरता और मिठास में खो जाते हैं। 

इनके पारंपरिक लिबास को लेकर भी शुरुआती समय मे इन्हें कई टिप्पणियों को सामना करना पड़ा था। 

अज़ी कहती हैं कि - 'जब भी हम किसी कॉन्सर्ट के लिए हवाई यात्रा पर अपने पारंपरिक लिबास या गहनों में जाते थे तब हमारे लिए वे पल सबसे मुश्किल होते थे क्योंकि सिक्योरिटी गार्ड से लेकर अन्य यात्री तक हमें किसी सर्कस के जानवर की तरह देखते थे और हम पर भद्दी टिप्पणियाँ करते थे, पर धीरे-धीरे हमने इन सबकी आदत डाल ली।'

आज ऐसे आदिवासी युवक-युवतियों की ज़रूरत है जो अपनी परंपरा और संस्कृति को जीवित रखें और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ले जाएं।

चारों बहनें सिंगिंग के अलावा अलग-अलग क्षेत्रों में भी अपना करियर बना चुकी हैं।

मर्सी ने दिल्ली विश्वविद्यालय से साइकोलॉजी में डिग्री प्राप्त की है। इसके अतिरिक्त वे लेखिका भी हैं

अज़ी ने भी दिल्ली विश्वविद्यालय से पोलिटिकल साइंस से ग्रैजुएशन किया है और वे मिस नागालैंड की रनरअप रही हैं। और अभी मॉडलिंग भी करती हैं। वैसे रैंप पर चारों बहनें कई बार वॉक कर चुकी हैं।

कुकु ने भी दिल्ली विश्वविद्यालय के लेडी श्रीराम कॉलेज से डिग्री ली है। इसके अलावा वे 'नागानेस' नाम से फ़ूड ब्लॉग चलाती हैं।

लुलु चारों में सबसे छोटी हैं और इंदिरा गांधी गवरमेंट मेडिकल कॉलेज, नागपुर से डॉक्टरी कर रही हैं।

इसके अतिरिक्त एक महत्वपूर्ण बात और है कि इनका एक भाई भी है जिसका नाम Mhaseve है, वह भी इनके साथ इनके बैंड में शामिल है।

आप भी टेटसिओ सिस्टर्स के गीतों को निम्न fb पेज के लिंक पर जाकर सुनकर आएं।
By
द रीपोर्ट टीम
https://www.facebook.com/Tetseosisters/

Tuesday, June 2, 2020

अमेरीका लोकशाहीप्रधान देश असुन सुद्धा ???

फ्लॉयड हा आफ्रिकन-अमेरिकन नागरिक मागील पाच वर्षांपासून एका रेस्टॉरंटमध्ये सुरक्षारक्षक म्हणून काम करत होता. अलीकडे कोरोनामुळे उद्भवलेल्या परिस्थितीत नोकरीही हातून गेल्यामुळे त्याच्या अडचणीत भरच पडली होती. २५ मेला मिनियापोलिसचे पोलीस अधिकारी डेरेक चौविन यांनी फ्लॉइडला ताब्यात घेतलं. बनावट चलनाचा वापर करण्याच्या संशयातून फ्लॉयडला ताब्यात घेत असताना अत्यंत अमानुष रीतीने वंशभेदातून त्याचा खून करण्यात आला, तेही दिवसाढवळ्या नागरिकांच्या गराड्यात...

 पोलीस अधिकारी डेरेक चौविन यांनी फ्लॉयडला खाली पाडून त्याच्या मानेवर स्वत:चा गुडघा रोवून धरला होता. वेदना आणि श्वास घेण्यासाठी त्रास होत असल्याने फ्लॉयडने त्याची मान मोकळी करण्यासाठी खूप गयावया केली, परंतू चौविन या अधिकाऱ्याने तब्बल सात मिनिटं जॉर्ज फ्लॉयडच्या मानेवर आपला गुडघा तसाच दाबून ठेवला. फ्लॉयड ‘मला सोडा, श्वास घ्यायला त्रास होतोय’असं म्हणत, आजूबाजूच्या पोलिसांनाही जीव वाचवण्याची विनंती करत होता. पण चौविन आणि त्याच्यासोबतच्या पोलिसांनी त्याकडे दुर्लक्ष केलं. तिथं जमा झालेल्या गर्दीतील अनेकांनी घटनेचं व्हिडिओ रेकॉर्डिंग केलं, दरम्यान फ्लॉयडचा मृत्यू झाला. या हत्येचे व्हिडिओ व्हायरल झाले आणि त्यानंतर अमेरिकेतल्या विविध प्रांतात मोठा जनक्षोभ निर्माण झाला. ‘ब्लॅक लाइव्ह्ज मॅटर’ असा आशय लिहिलेले फलक घेऊन अधिकाधिक लोक निदर्शनांसाठी जमू लागले. 'जस्टिस फॉर जॉर्ज' आणि 'ब्लॅक लाइव्हज मॅटर' सारख्या घोषवाक्यांनी अनेक शहरं दुमदमू लागली. अमेरिकेतल्या अनेक प्रांतात या आंदोलनांमुळे जवळपास आणीबाणीची परिस्थितीच निर्माण झाली आहे. 
 पोलिस सेवा करतात, मदत करतात, सरंक्षण करतात. जॉर्ज फ्लॉयड मदतीची भीक मागत होता, त्याला श्वासही घेता येत नव्हता, ते त्याला अटक करू शकत होते, शिक्षा देऊ शकत होते, पण त्यांनी तसं केलं नाही. त्याच्या मानेवर गुडघा दाबून त्याचा जीव घेतला. जनावरांनाही अशी वागणूक कोणी देत नाही, अशी वागणूक जॉर्ज फ्लॉयडला दिली. पण या अमेरिकन पोलिसांच्या वंशभेदी वर्तणुकीचा तीव्र निषेध!

भारत आणि अमेरिका दोन्ही स्वतंत्र देश आणि लोकशाहीप्रधान सुद्धा  !! 
"अमेरिकेत वर्णवाद गेल्या कित्येक वर्षांपासून आहे पण हळूहळू तिथे सुधार होत आहे तिथल्या काही विवेकवादी लोकांनी वर्णवाद संपविण्याच्या दिशेने पाऊले उचलली.
" बराक ओबामा हे एक त्याच ज्वलंत उदाहरण म्हणता येईल.
-- काल परवा एका काळ्या माणसाची हत्या करण्यात आली. तेव्हा ही अमेरिका राष्ट्रभवनाच्या आजूबाजूला गोळा झाली तिथल्या प्रशासकला वेठीस धरलं.
मेला तो काळा होता आणि निषेध गोरे लोक करत होते.
हे असे चित्र का? अस गांभीर्याने विचार केला तर तिथला वर्णवाद तिथल्या लोकांना संपवायचा आहे. 

अमेरिकेच्या उज्वल राष्ट्राध्यक्षच्या यादीत "डोनाल्ड ट्रम्प हे नाव काळाक्षराने लिहल जाईल.
त्याचा अहंकार आणि सत्तेचा दुरुपयोग अमेरिकेने उघड्या डोळ्यांनी पाहिला आहे.
पण अमेरिकेकडे डोळे आहे ते डोळस आहेत योग्य अयोग्य याची जाणीव त्यांना आहे .....
पण भारताचा काय? 
" सारी अमेरिका एका माणसाच्या हत्येने एकत्र येते संघर्ष करते तिथेच...
 भारतात एक भोतमांगे गळफास लावून मरतो.
सागर ची हत्या होते ते ही चौकात पण देश एकत्र येत नाही.
उन्नाव प्रकरण पिढीतेला जाळलं जात, तिचं घर पेटवल्या जात.पायल तडवी ला आत्महत्या करावी लागते, रोहीत वेमुलाची  हत्या केली जाते.ऊना मध्ये दलीताना मारले जाते. परत जुनेद वगैरे बरेच काही देशात होतात. पन देश गर्भगडीत थंडच असते. काही पिडीत आवाज उठवतात पन त्यांचाही आवाज दाबल्या जातो.
तिथला वर्णवाद इथला जातीवाद? 
ते मिटविण्यासाठी एकत्र आलेत अन आपण हत्या ज्याची होती त्याची जात शोधण्यात मशगुल असतो.
जातीवरून आम्ही एकत्र येतो "ज्या जातीचा मेला ते न्याय देतील लढतील... आपल्यासाठी मेला तो माणूस होता हे महत्वाचं नाही का? 
देश,सत्ता,राजकारण, -- सरकारचे समर्थक असावे पण चुकीला विरोध करणारे समर्थक..
अन विरोधक असावे तर सरकारने केलेल्या चांगल्या कामाची स्तुती करणारे.
--भारतीय मीडिया एक पाऊल पुढे आहे. ती तुम्हाला कुठे गुरफटून ठेवायचं हे चांगलं ओळखून आहे.
या देशात अनेक हत्याकांड होतात हत्याकांड एवढे क्रूर असतात की त्यांना जवळून पाहिलं तर माणूस म्हणवून घेण्याची लाज वाटेल.
पण न्याय नेहमी जातीच्या आधारे?? 
बंधुत्व हा शब्द दोन्ही लोकशाहीत आहे.
पण ते त्या तत्वाशी प्रामाणिक आहेत ते तत्वनिष्ठ आहे.
मग आपली निष्ठा?? 
ज्या दिवशी एका माणसाची हत्या होईल आणि साऱ्या देशातल्या माणसे एकत्र येऊन निषेध नोंदवतील तो या भारत देशाचा सुवर्णमध्य असेल......
        
by
डॉ. घपेश पुंडलिकराव ढवळे नागपुर
     ghapesh84@gmail.com
     M. 8600044560